Hindi kavitaye हिन्दी में

कविताये हिन्दी मे 
गलती कर बैठी जाने - अनजाने में
लड़की रोती रही रातभर थाने में !

सोलह भी ना हुई उमर पर
चढ़ा प्यार का रंग,
मां के गहने,मान पिता का
लेकर प्रेमी संग,

चली गई थी थोड़ा सा बहकाने में,
लड़की रोती रही रातभर थाने में !

पैसों के ही साथ प्यार का
नशा हुआ काफ़ूर,
सारे फिल्मी सपने निकले
सच से काफी दूर,

प्रेमी चिढ़ने लगा नमक तक लाने में,
लड़की रोती रही रातभर थाने में!

अपनी बीती सुना सुना कर
रोई लाखों बार,
धाराओं का रेट सोचकर
नाचा थानेदार,

लक्ष्मी का अवतार हुआ वीराने में,
लड़की रोती रही रातभर थाने में !

समझ चुकी है घटनाक्रम में
खुद के ही थे दोष,
आंखों में बांकी है केवल
शर्म और अफ़सोस,

घर जाने से अच्छा है मर जाने में,
लड़की रोती रही रातभर थाने में !

हँसते हँसते
 
Add caption
आसानी से
पचा लिए हैं,
हमने सारे झूठ !

बिना पलक झपकाए तुमने
जो भी बात बताई,
हमने गर्दन बिना हिलाए
कर दी वेरीफाई,

हँसते हँसते
गटक लिए हैं,
सारे कड़वे घूंट !

औसत मान हमारे सच का
सिद्ध हुआ जब जीरो,
डाकू को साधू माना फिर
हत्यारों को हीरो,

तब जाकर मिल पाई
हमें भी
जनतंत्रों की छूट !

अपने सब कर्तव्य त्याग दे
जब खाकी या खादी,
अनुयायी बनना हितकर है
बनने से प्रतिवादी,

यही सोचकर
करवा आए,
अपने घर की लूट !

    धीरे धीरे,
होनी है सब,
अपराधों की सुनवाई
धैर्य रखो,,,

मानवता अपने लालच के
अवसादों से भर जाएगी,
विस्फोटों से बच निकली तो
संक्रमणों से  मर जाएगी,

रह जाएगी,
धरी सभ्यता ,
की सब की सब चतुराई,
धैर्य रखो,,

जितनी लूट मचाई उसकी
कीमत कभी चुकानी भी है,
इस विनिमय का गणित सरल है
पीड़ा देकर पानी भी है,

करनी होगी,
सबको अपनी,
करतूतों की भरपाई,
धैर्य रखो,,

हमने समाधान खोजे हैं
केवल मौखिक प्रश्नोत्तर से,
सारे संकट टाल रखे हैं
शुतुरमुर्ग हो जाने भर से,

खुल जानी है,
एक दिवस इन,
तकनीकों की सच्चाई,
धैर्य रखो,,
अपनो ने नही किया स्वीकार

जब हम गिरते- पड़ते वापिस पहुँचे अपने द्वार,
हमें  हमारे ही अपनों  ने   किया  नहीं स्वीकार!

कभी सड़क पट गयी हमारे
हारे     थके      शवों      से,
कभी  रक्त  की  गंगा यमुना
आ    निकली    तलवों   से,

जैसे माहुर लगे विहग को कुल देता दुत्कार,
हमें हमारे ही अपनों ने किया नहीं स्वीकार!

हमें हिकारत की नजरों से
देख     रहे        नर-नारी,
जैसे अपने साथ लाये  हम
कोरोना              बीमारी,

तितर बितर  हो  गए दूर से देख पुराने यार,
हमें हमारे ही अपनों ने किया नहीं स्वीकार!

नगर  गए थे  श्रम के बदले
जिन   सपनों     को   पाने,
उनकी कीमत को वसूलते
भौजाई       के         ताने,

लला तुम्हारे होश ठिकाने आये  हैं इस बार,
हमें हमारे ही अपनों ने किया नहीं स्वीकार!


                     
   

Post a Comment

0 Comments